अध्याय १८
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुन:।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।२४।।
अब भगवान राजसिक कर्म के लक्षण बताते हैं और कहते हैं:
शब्दार्थ :
१. जो कर्म बहुत परिश्रम से,
२. तथा फल की चाहना लिए हुए
३. और अहंकार युक्त होकर किए जाते हैं,
४. वे राजस कर्म कहलाते हैं।
तत्त्व विस्तार :
नन्हीं जान्! अब भगवान कहते हैं, जो कर्म अहंकार युक्त होकर किए जाते हैं, वे राजस कर्म हैं, यानि अभिमान पूर्ण कर्म, दम्भ दर्प पूर्ण कर्म, देहात्म बुद्धि युक्त कर्म राजस कर्म हैं।
कर्म फल की चाहना से प्रेरित हुए कर्म, यानि,
1. फल चाहना से प्रेरित हुए कर्म,
2. लोभ, तृष्णा और केवल स्वार्थ से प्रेरित कर्म,
3. केवल दम्भ पूर्ति के लिये किये हुए कर्म,
4. केवल अपनी स्थापति के लिए किये हुए कर्म, राजस हैं।
बहु परिश्रम युक्त कर्म :
क) जिस कर्म के करने में पूर्ण श्रम लग जाये, जीव की पूर्ण शक्ति व्यय हो जाये और उसे नियत कर्म करने का समय ही न मिले, ऐसे कर्म राजसिक हैं।
ख) अत्यधिक परिश्रम मनोक्लेश देता है।
ग) भाई! लोभी का लोभ तृप्त नहीं होगा, काम भी बहुत करेगा, क्लेश भी होगा ही।
घ) कामनायें भी कभी पूरी नहीं होतीं, एक ख़त्म हुई, दूसरी उठ आती है, तो क्लेश भी होगा ही।
ङ) सकाम कर्म क्लेश पूर्ण ही होते हैं।
च) इन लोगों को अपने बच्चों तथा परिवार के लिए भी समय नहीं मिलता।
रजोगुण वालों की चाहना यह होती है कि :
1. जिन जिन वस्तुओं में अहंकार वर्धक गुण हैं, वे मिल जायें।
2. जैसे भी हो, वे अपने तन को स्थापित कर लें।
अहंकार स्वयं क्लेश देने वाला कर्म है, यह राजसिक गुण है। अहंकार कामना पूर्ति के लिए तड़पेगा ही।
भाई! अहंकार के पास दैवी गुण नहीं होते। अहंकार और दैवी गुण सम्पदा का संयोग नहीं हो सकता, राजसिक कर्म असुरत्व प्रधान कर्म हैं।
क्लेशपूर्ण कर्म :
नन्हूं! सच तो यह है :
1. धोखेबाज़ी और बेईमानी पूर्ण कर्म करने में लाख क्लेश होते हैं।
2. अत्याचारी, दुराचारी एवं दुष्ट लोग नित्य क्लेश में रहते हैं।
3. जहाँ प्रेम नहीं, वहाँ कष्ट होगा ही।
4. जहाँ सत् नहीं, वहाँ थकान होगी ही।
5. जहाँ संयम नहीं, वहाँ क्लेश होगा ही।
रजोगुणी लोग तो लोभपूर्ण होते हैं, इसलिये वे नित्य अतृप्त होते हैं। जितनी जितनी कामना पूर्ण करने के यत्न करते हैं, उतनी ही वह और बढ़ती जाती है।
जितना लोभ बढ़ जाये, परिश्रम भी अनुकूल ही बढ़ जाता है। सतोगुण से ये लोग बेगाने होते हैं। ये सतोगुण पूर्ण काज नहीं करते। अपने को ये कर्तव्य विमुक्त समझते हैं।
करुणा का कहीं नामोनिशान नहीं होता रजोगुणी लोगों में। ये लोभपूर्ण अहंकारी कीड़ों की तरह परिश्रम करते हैं। इसी में उम्र बीत जाती है, आराम से बैठना ये जानते ही नहीं।
रजोगुणी लोगों को और तामसिक लोगों को अपनी नौकरी का गुमान होता है, अपनी कुर्सी, अपने धन, अपने मान का गुमान होता है। ये हर वक्त अकड़ते ही रहते हैं, इनके कर्मों में भी धन, अकड़ और गुमान की बू आती है।