Chapter 17 Shloka 21

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुन:।

दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।।२१।।

The Lord says:

However, that gift given with the object

of receiving some service in return

or in the hope of receiving some reward,

and that which is given grudgingly, is rajsic daan.

Chapter 17 Shloka 21

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुन:।

दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।।२१।।

The Lord says:

However, that gift given with the object of receiving some service in return or in the hope of receiving some reward, and that which is given grudgingly, is rajsic daan.

Rajsic daan

Little one, the Lord elaborates now on rajsic daan – the charity of those in whom the attributes of greed and desire predominate.

The Rajsic:

a) give such charity with the expectation of a return;

b) charity is tainted by desire for self;

c) charity is in the nature of a business;

d) never lose sight of their selfish ends;

e) give charity only for self establishment.

They seek:

a) recognition and renown;

b) establishment in society;

c) wealth;

d) the service of others;

e) the support of others for their own projects.

Greed and desire mark their every act and thought. Their service and their charity are also not free of selfish motives.

Such people perform great deeds and give huge donations, but it is extremely difficult to extract true charity from them.

1. This is because their charity does not spring from compassion.

2. They do not build hospitals out of compassion for the ill and the diseased. They construct hospitals in order to make a name for themselves.

3. Even if they engage in service of the world, it is only to serve as a means to establish themselves.

4. They give charity in order to subjugate the other under their obligation or to gain their selfish ends.

5. Such people give charity after subjugating others, humiliating them, causing them much sorrow and snatching away their self respect.

They are hypocrites, full of pride and ego. They never consider giving anything where it is of no benefit to them. They give charity under pressure from others and never of their own accord. They give only when it can no longer be avoided; and it causes them great heartache to do so. Such is rajsic daan.

अध्याय १७

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुन:।

दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।।२१।।

भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. परन्तु जो दान,

२. प्रत्युपकार के लिए,

३. वा पुनः फल के उद्देश्य से

४. और क्लेश पूर्वक दिया जाता है,

५. वह दान राजसिक माना गया है।

तत्त्व विस्तार :

रजोगुणी दान :

नन्हीं! यहाँ यह रजोगुण सम्पन्न, यानि, लोभ और कामना पूर्ण के दान की बात बता रहे हैं और कहते हैं कि रजोगुणी लोग,

क) प्रत्युपकार की चाहना से दान देते हैं।

ख) इनका दान सकाम होता है।

ग) यानि वे दान देकर भी व्यापार करते हैं।

घ) वे अपना स्वार्थ कभी नहीं भूलते।

ङ) वे वास्तव में अपनी ही स्थापति अर्थ दान देते हैं।

भाई वे चाहते हैं कि :

1. मान मिल जाये।

2. प्रतिष्ठा हो जाये।

3. धन मिल जाये।

4. कोई चाकर बन जाये।

5. कोई समर्थक मिल जाये।

6. इनकी हर बात में लोभ तथा कामना छिपी होती है।

7. इन लोगों की सेवा और दान भी कामना रहित नहीं होते।

ये लोग बड़े बड़े काम करते हैं, बड़ा बड़ा दान देते हैं, परन्तु इनसे दान निकलवा लेना बहुत कठिन है। क्योंकि ये :

क) अनुकम्पा अर्थ दान नहीं देते।

ख) करुणा से प्रेरित होकर चिकित्सालय नहीं बनवाते। ये तो नाम कमाने के लिये बनवाते हैं।

ग) ये लोग यदि जग की सेवा भी करते हैं, तो वह भी नाम कमाने के लिए।

घ) ये किसी को अपने एहसान के नीचे दबाने के लिए दान देते हैं या किसी से अपना काम करवाने के लिए दान देते हैं।

ङ) ये लोग दूसरे को दबा कर, दूसरे को झुका कर, दूसरे को दुःखी करके और दूसरे का आत्म सम्मान छीन कर दान देते हैं।

ये स्वयं दम्भ, दर्प, अहंकार पूर्ण लोग हैं। जहाँ से कुछ न मिले, वहाँ ये दान नहीं देते। रजोगुणी किसी के दबाव के नीचे आकर भी दान दे देते हैं। ये खुशी से दान नहीं देते, भाई! मजबूरी से देते हैं, दुःखी होकर देते हैं। यही राजसिक दान है।

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