Chapter 16 Shloka 20

आसुरीं योनिमापन्ना मूढ़ा जन्मनि जन्मनि।

मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।२०।।

The Lord now says:

Arjuna! Those deluded persons,

consigned repeatedly into demonic wombs,

do not attain Me and sink to even more abysmal depths.

Chapter 16 Shloka 20

आसुरीं योनिमापन्ना मूढ़ा जन्मनि जन्मनि।

मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।२०।।

The Lord now says:

Arjuna! Those deluded persons, consigned repeatedly into demonic wombs, do not attain Me and sink to even more abysmal depths.

Who is an Asura – demon?

Little one, you must first of all understand that:

1. These asuras are ordinary human beings.

2. They are possessed of demonic attributes.

3. They perpetrate demon-like actions.

4. They are evil doers.

5. They are people who only follow their desires.

6. They are proud and arrogant.

7. They are deceitful.

8. They are critical gossip mongers who enjoy robbing others of their good reputation.

9. They are egoistic demons who continually suppress and subjugate others.

10. They resort to anger and ill temper.

11. They are destroyers of the world and of other people.

12. Those who constantly escape from performing their duty are asuras.

13. They are traitors of the land.

14. Little one, those who follow their likes and are prepared to destroy whosoever obstructs their path towards the acquisition of those likes, they are verily asuras.

15. Those blind and orphaned individuals who believe that only they are superior, are indeed asuras.

16. Asuras are deceitful.

17. Asuras are perpetrators of evil deeds and cause sorrow to others.

18. They are without shame, despising and criticising everyone else.

Little one, not only are these people full of negative traits such as desire, anger, greed, moha and ego, they also:

a) endeavour to conceal their negative tendencies;

b) misuse their attributes;

c) hide their own negativity and project themselves as superior to others;

d) are shameless and make every effort to corrupt others;

e) become proud and arrogant on account of the very traits that should have made them feel humble and ashamed;

f) condemn, abuse and reject those who inhere similar traits, whereas they should have been able to understand and tolerate those negative traits in others. But in fact they start fighting anyone in whom they see their own traits.

Little one,

1. They themselves are despicable and instead they cast aspersions on others.

2. They themselves are dishonourable, but malign others as disreputable.

3. They themselves engage in wicked deeds and endeavour to ignite the same passion in others.

Such people take great delight in the other’s downfall. They get great satisfaction and comfort at the decline of the other.

They are enemies of those who are superior to them. They inhere evil traits and then use those traits to the others’ disadvantage, justifying themselves at every step through vague postulates. They are the cause of the other’s decline and sorrow. Thus they attain even more degraded wombs and ensure their own degeneration. Little one, the word ‘Yoni’ used in this shloka can be described as ‘womb’ – the originating place of each new birth.

Birth and death

By birth and death we should not understand only the gross phenomena. Birth can be at three levels.

1. The ever new veils that eclipse the intellect are a constant generative process.

2. Ever new tendencies and thought processes constantly arise and then fade away in the mind.

3. New modes of action are constantly born and then fade away.

4. Likes and dislikes, knowledge and ignorance, are ever rising and decreasing.

When two qualities are united, a third quality takes birth. The attributes of one influence the attributes of the other. New attributes are thus generated within the one being influenced. It is another matter that the new trait may be manifest or unmanifest.

Those in whom the demonic attributes predominate, sink deeper daily into the abysmal depths of ignorance. They constantly degrade themselves.

Little one, all these ‘births’ are dependent on one’s inherent traits and pertain to human beings.

Divinity and demonism

Little aspirant of the Truth!

1. Demonism and divinity are both dependent on one’s mental state.

2. Demonism and divinity are dependent on one’s basic point of view.

3. Demonism and divinity are not so dependent on one’s code of action as on the motivating force and prompting desire that lies behind that action. Ultimately it is one’s qualities that determine the motivating force and hence the ensuing action.

4. Both demonism and divinity are based on one’s intrinsic perspective where others are concerned.

Demonic traits filled with egoism automatically tend to destroy others. If these same traits existed in one who was devoid of ego, such a one would use them for the benefit of others.

Little one, man develops and strengthens these demonic tendencies in his life time and again and thus paves his way to progressive degradation.

अध्याय १६

आसुरीं योनिमापन्ना मूढ़ा जन्मनि जन्मनि।

मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।२०।।

अब भगवान कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. अर्जुन! वे मूढ़ पुरुष,

२. जन्म जन्म में आसुरी योनियों को प्राप्त हुए,

३. मेरे को न प्राप्त होकर,

४. उससे भी अति नीच गति को पाते हैं।

तत्त्व विस्तार :

असुर कौन हैं ?

नन्हीं! सर्व प्रथम यह जान ले कि,

क) ये आसुरी लोग जीव ही होते हैं।

ख) ये असुर लोग साधारण इन्सान ही होते हैं।

ग) असुरत्व गुणों की बात है।

घ) दुराचारी असुर ही होते हैं।

ङ) कामना परायण लोग असुर ही होते हैं।

च) दम्भ पूर्ण लोग असुर ही होते हैं।

छ) मिथ्याचारी लोग असुर ही होते हैं।

ज) निन्दक लोग दूसरों का मान हरने वाले असुर ही होते हैं।

झ) अहंकार पूर्ण लोग नित्य दूसरों को दबाने वाले असुर ही होते हैं।

ञ) क्रोध परायणता असुरों का गुण है।

ट) जग नाशक तथा जीव विनाशक लोग असुर ही होते हैं।

ठ) नित्य कर्तव्य विमुख रहने वाले लोग असुर ही होते हैं।

ड) देश विद्रोही गण असुर ही होते हैं।

ढ) नन्हूं जान्! जो केवल अपनी रुचि के पीछे जाते हैं और अपनी रुचि पूर्ति करने के लिए राहों में जो भी आये, उसे तोड़ते या ठुकराते हैं, वे असुर ही बन जाते हैं।

ण) केवल अपने आप को ही श्रेष्ठ मानने वाले अन्धे तथा यतीम असुर ही होते हैं।

त) असुर लोग धोखेबाज़ होते हैं।

थ) असुर लोग औरों को दुःख देने वाले दुराचारी होते हैं।

द) असुर लोग निर्लज्ज, घृणा करने वाले तथा निन्दक होते हैं।

नन्हूं! इसे यूं समझ लो कि एक तो इनमें बुरे गुण होते हैं यानि ये लोग काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार पूर्ण गुणों से भरे हुए होते हैं, ऊपर से ये :

1. अपने गुणों को छुपाने का प्रयत्न करते हैं।

2. अपने गुणों का दुरुपयोग करते हैं।

3. अपने दुर्गुणों को छिपाते हुए, अपने आपको और भी श्रेष्ठ दर्शाते हैं।

4. निर्लज्ज हो जाते हैं और दूसरों को भी तबाह करते हैं।

5. इन गुणों के कारण इन्हें झुक जाना चाहिये था, किन्तु ये और भी अकड़ जाते हैं।

6. अपने दुर्गुणों के कारण, इन्हें लोगों के दुर्गुण सहने आ जाने चाहिये थे, परन्तु ये लोगों को और भी निकृष्ट समझने लगते हैं। अपने ही गुण जब दूसरों में इनके सामने आयें तो ये लड़ने लगते हैं।

नन्हूं!

क) बुरे ये स्वयं होते हैं, बुरा ये दूसरों को कहते हैं।

ख) बदमाश ये स्वयं होते हैं, बदमाश ये औरों को कहते हैं।

ग) ये स्वयं व्यभिचारी होते हैं और दूसरों को भी व्यभिचारी बनाना चाहते हैं।

ऐसे लोगों को दूसरों को गिरा कर :

– निहित मज़ा आता है।

– सान्त्वना मिलती है।

– एक अजीब किस्म का चैन मिलता है।

ऐसे लोग अपने से श्रेष्ठ लोगों के मानो दुश्मन हो जाते हैं। एक तो वैसे ही ये आसुरी गुण बुरे होते हैं, ऊपर से उन गुणों का ये लोग दुरुपयोग करते हैं। फिर अपने आपको ये मिथ्या सिद्धान्तों के द्वारा दोष विमुक्त करने का प्रयत्न करते हैं। ये औरों को गिराते और दुःखी करते हैं, इस कारण इनको और भी नीच योनियाँ मिलती हैं और इनका पतन हो जाता है।

नन्हीं! योनि गर्भ को कहते हैं, जहाँ से नव जन्म होता है।

जन्म मरण :

यह जन्म केवल स्थूल जन्म ही नहीं समझ लेना चाहिये। त्रैस्तर पर जन्म होता ही रहता है, यानि:

1. बुद्धि पर नित्य नव आवरण जो पड़ते रहते हैं, उन आवरणों का भी मानो जन्म होता है।

2. मन में भी नित्य नव वृत्तियों का जन्म व मृत्यु होती रहती है।

3. कर्म प्रणाली में भी नित नव क्रिया प्रणालियों का जन्म व मृत्यु होती रहती है।

4. रुचि, अरुचि, ज्ञान, अज्ञान, इत्यादि का भी जन्म मरण होता रहता है।

दो गुणों के मिलने से नव गुण उत्पन्न हो जाते हैं। एक के गुण दूसरे के गुणों को प्रभावित करते हैं और जो प्रभावित हो जाये, उसमें कोई नव गुण उत्पन्न हो जाता है। वह गुण प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष, यह दूसरी बात है।

असुरत्व गुण पूर्ण लोग, दिनों दिन नीचे की ओर गिरते जाते हैं। वे दिनों दिन और अधम बनते जाते हैं।

नन्हूं! ये सम्पूर्ण योनियाँ आपके गुणों पर आधारित हैं और सम्पूर्ण योनियाँ जीव की ही होती हैं।

असुरत्व और देवत्व :

सत्य अभिलाषिणी, सत्यचाहुक नन्हूं!

क) असुरत्व या देवत्व मनोस्थिति पर आधारित है।

ख) असुरत्व या देवत्व आपके निहित दृष्टिकोण पर आधारित है।

ग) असुरत्व या देवत्व कार्य प्रवृत्ति या निवृत्ति की इतनी बात नहीं, जितनी कि इनके पीछे आपकी प्रेरक चाहना और प्रेरक शक्ति के कारण रूप और गुण की बात है, जिस पर कर्म आधारित हैं।

घ) आपके दूसरे के प्रति दृष्टिकोण पर आधारित हैं।

अहंकार पूर्ण आसुरी गुण औरों को तबाह करना चाहते हैं। यदि अहंकार रहित में ये गुण हों तो वह इन्हें औरों के हित तथा औरों की स्थापना के लिये इस्तेमाल करेगा।

नन्हूं! इन्सान जीते जी ही आसुरी योनि को और परिपक्व करता जाता है, फिर जन्म मरण में तो वह गिरता ही जायेगा।

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