Chapter 15 Shloka 7

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।७।।

The Lord says, Arjuna!

The individual soul in this world of mortals

is a primal constituent of Me. Abiding in Prakriti,

this jivatmaalong with the mind,

 attracts the five sense organs.

Chapter 15 Shloka 7

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।७।।

The Lord says, Arjuna!

The individual soul in this world of mortals is a primal constituent of Me. Abiding in Prakriti, this jivatma, along with the mind, attracts the five sense organs.

The Lord says to Arjuna that the individual soul in this mortal world is an ancient constituent of Me; that is, it is a component of the Supreme Atma.

However, little one, how can That indivisible One be divided? Why not say that the Atma Itself abides therein?

a) There is no essential difference between the Whole and its component.

b) There is no difference between the attributes of the Whole and its component.

c) There is just one power and energy that inheres both.

d) The component can at most be called the limited form of the unlimited Whole.

e) The proof of the Whole is found in the components, which pervade the entire universe.

f) The proof of the Whole can be perceived in the body and ‘I’ complex.

However, there is a pervasive unity in all. If the jivatma or mortal being, possessed of the consciousness of his individual existence, truly gets to know himself, he will realise that he too, is whole within That Whole.

1. Unfortunately, he has laid claim to merely one portion.

2. He has adopted the body idea.

3. Attachment has caused him to renounce his Atma self and lay claim to that which is a mere reflection of the Atma.

Why do Brahm and His individual component – the jivatma – seem so different? Both are the same in essence.

a) The latter appears different because the jivatma has laid claim to only those attributes that are born of Prakriti.

b) Ignorance prevents the intellect that is subservient to the body, from understanding the reality.

c) Identification with one’s gunas and one’s name and form, prevent the individual from witnessing his true essence.

The Lord states here, “The ancient Atma component within the jivatma is verily Mine. This Atma component, having borrowed consciousness from Me, carries that same consciousness to the mortal world.” Thus it is the Supreme Atma which endows consciousness to the entire world. Then the individualised jivatma, equipped with the body idea, draws the mind and the five organs of perception towards itself. Here the Lord has referred to the mind too, as an organ of perception.

Attachment causes one’s downfall

Little one, attachment causes the individual to lay claim on the mind, the sense organs and their qualities, all of which are the creation of Prakriti. The individual also claims the credit for their actions. That is, he attracts the attributes of Prakriti and due to ignorance, becomes attached to them. This attachment causes him to return time and again into the cycle of birth and death. Ignorance causes his moha or delusion to be further strengthened.

The jivatma who is devoid of all these veils of delusion:

a) is verily the Lord Himself;

b) is the divine manifestation of Brahm;

c) is an Atmavaan;

d) is Adhyatam in essence.

Little one, because the jivatma possesses a fraction of that Supreme Essence:

a) it possesses the power of creation;

b) it possesses the power to turn the gross inanimate into animated consciousness;

c) it possesses the power to create the body through a combination of the elements.

If the jivatma becomes devoid of attachment and completely silent, i.e.:

a) if it does not get attached to its creative power,

b) if it is not attached to its power of thought,

c) if it is not attached to its own creation,

– then it will transcend these attributes and all qualifications born of ignorance. What will remain will be the Lord Himself.

अध्याय १५

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।७।।

भगवान कहने लगे कि अर्जुन!

शब्दार्थ :

१. जीवलोक में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है।

२. वही प्रकृति में स्थित,

३. मन सहित, पाँच इन्द्रियों को आकर्षित करता है।

तत्त्व विस्तार :

भगवान अर्जुन से कहते हैं, कि इस जीव लोक में जीव उनका ही सनातन अंश है, यानि परम आत्मा का ही सनातन अंश है। जीव परम का अंश है।

किन्तु नन्हूं! अविभाजनीय का विभाजन कैसे हो सकता है? सो क्यों न कहें कि वहाँ आत्मा ही वास करता है।

क) अंश तथा अंशी में भेद नहीं होता।

ख) अंश तथा अंशी के गुणों में भी भेद नहीं होता।

ग) अंश और अंशी में मानो एक ही शक्ति निहित रूप में वास करती है।

घ) अंश को अंशी का सीमित रूप कह लो!

ङ) अंशी का प्रमाण, पूर्ण सृष्टि में दर्शाता है।

च) अंशी का प्रमाण, तन पुंज ‘मैं’ में दर्शाता है।

किन्तु, वास्तव में पूर्ण अंशी के तत्त्व में अनन्यता है। जीवत्व भाव युक्त जीवात्मा यदि अपने आपको जान ले, तब वह समझ जायेगा कि वास्तव में वह, पूर्ण की पूर्णता में पूर्ण ही है। केवल :

1. भूले से उसने अंश को अपना लिया है।

2. भूले से उसने तनत्व भाव को अपना लिया है.

3. संग के कारण उसने अपने आत्म स्वरूप को छोड़ कर बिम्ब मात्र को अपना लिया है।

ब्रह्म और जीव अंश में भिन्नता क्यों दिखाई देती है?

ब्रह्म अंश तथा आत्म रूप जीव स्वरूप तत्त्व से भिन्न नहीं है।

क) वह केवल प्रकृति रचित उपाधियों को अपना लेने के कारण भिन्न सा दर्शाता है।

ख) अज्ञानता के कारण देहात्म बुद्धि वास्तविकता को नहीं समझ रही।

ग) गुण तथा नाम और रूप से तद्‍रूपता के कारण जीव को अपना ही स्वरूप याद नहीं रहा।

भगवान यहाँ कह रहे हैं कि जीव में मेरा ही सनातन अंश है। यह मुझ चेतनता स्वरूप से चेतन अंश लेकर जीव लोक को चेतन सा कर देता है। परमात्म सम्पूर्ण सृष्टि में चेतनता भर देता है, फिर यही तनत्व भाव पूर्ण जीवात्मा मन तथा पंच ज्ञानेन्द्रियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। यहाँ भगवान ने मन को भी ‘इन्द्रिय’ कहा है।

संग से गिरावट

नन्हूं बच्चू! संग के कारण जीवात्मा प्रकृति रचित मन तथा इन्द्रियों को तथा उनके गुणों को अपना लेता है और इनके द्वारा किये गये कार्यों को भी अपना लेता है।

यानि, वह प्रकृति रूप उपाधियों को आकर्षित करता है। इस संग और अज्ञान के कारण वह बार बार जन्मता और मरता है। यह अज्ञान ही उसका मोह भी परिपक्व करता है।

आवरण रहित जीवात्मा,

क) भगवान ही होता है।

ख) ब्रह्म की विभूति ही होता है।

ग) आत्मवान् ही होता है।

घ) अध्यात्म स्वरूप ही होता है।

नन्हीं! इस जीवात्मा में परम अंश होने के कारण,

1. रचनात्मक शक्ति है।

2. जड़ को चेतन करने की शक्ति है।

3. इस जीवात्मा में तत्वों को समेट कर, तन रच देने की शक्ति है। संग रहित जीवात्मा गर मौन हो जाये, यानि :

क) अपनी क्रियात्मक शक्ति से संग न करे,

ख) अपनी विचारात्मिका शक्ति से संग न करे,

ग) अपनी रचना से संग न करे,

तो यह गुणों और अज्ञान रचित उपाधियों का अतिक्रमण कर जाये। तब, बाक़ी भगवान ही रह जायेंगे।

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