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Chapter 13 Shloka 15
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।१५।।
Pointing out the indivisibility of the Atma, the Lord repeats:
It exists within and without all beings; It constitutes the animate and inanimate as well; It is incomprehensible due to its subtle nature and pervades that which is close at hand and that which is far away.
Chapter 13 Shloka 15
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।१५।।
Pointing out the indivisibility of the Atma, the Lord repeats:
It exists within and without all beings; It constitutes the animate and inanimate as well; It is incomprehensible due to its subtle nature and pervades that which is close at hand and that which is far away.
Describing the Atma, the Lord says that it pervades every form of creation.
a) It dons the entirety of forms in the manifest world.
b) It is both animate and inanimate – gross and subtle.
c) It is interwoven both within and without the animate and inanimate.
d) Not a particle exists where that Kshetragya is not.
Being extremely subtle,
1. It is unknowable.
2. It cannot be brought within the confines of thought.
3. It transcends the senses.
Little one,
a) That one is unparalleled, incomparable and immeasurable.
b) That one is unknown and invisible.
c) That one cannot be described; it is ever unmanifest and hidden.
It is extremely near
1. Since it abides within, it is extremely close.
2. Since it dwells in every limb, it is extremely close.
3. Since it abides in the mind and the intellect, it is extremely close.
4. Since it resides in the heart, it is extremely close.
5. Since it is our very Self, it is extremely close.
It is very far
1. Yet for one who does not know it,
2. For one who does not believe in it,
3. For one devoid of faith,
4. For the ignorant,
– it is extremely far.
Little one, ‘far’ and ‘near’ are terms used from the point of view of the individual. The Atma is our very Essence – our very Self. Yet,
a) The intellect which is subservient to the body, confuses the individual and the mortal being is thus separated from his own Self.
b) The individual is unable to recognise his very essence due to his attachment to his name and form.
c) Influenced by attributes and other associations, the individual cloaks his Self with the dust of his futile ignorance. Thus he forgets his very origin – his essential core. The Atma or your Self is not far from you. You are ‘That’ – yet, attached to your attributes, you distance yourself from your true Being.
1. You yourself have distanced yourself from your Self.
2. You have thus been extremely cruel to yourself.
3. You have thus been extremely insincere to yourself.
4. You have yourself distanced your Atma Self from yourself.
In fact, all that the Lord says about Himself is actually applicable to you. In fact everything that He is saying in this shloka is about you, all this is a description of your own Self.
Sever your ties with the attributes of your name and form for just a few moments, perhaps then you will understand this truth.
अध्याय १३
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।१५।।
नन्हूं! आत्मा की अखण्डता दर्शाते हुए भगवान पुन: कहने लगे :
शब्दार्थ :
१. वह भूतों के अन्दर भी है और बाहर भी है
२. और वह चर अचर रूप भी है,
३. सूक्ष्म होने के कारण वह अविज्ञेय है,
४. तथा अति समीप में और दूर में भी वही स्थित है।
तत्त्व विस्तार :
आत्मा का निरूपण करते हुए भगवान कहते हैं कि वह हर रूप में व्यापक है यानि,
क) अखिल रूप धारण किये हुए वह आप ही है।
ख) चर अचर यानि जड़ चेतन सब वह आप ही है।
ग) चर अचर के भीतर तथा बाहर वह स्वयं ओत् प्रोत् है।
घ) कहीं एक कण भी ऐसा नहीं है जहाँ क्षेत्रज्ञ नहीं है।
फिर वह कहते हैं कि अति सूक्ष्म होने के नाते,
1. वह अविज्ञेय हैं।
2. वह अचिन्त्य रूप हैं।
3. वह अतीन्द्रिय हैं।
नन्हूं!
– वह तो अप्रतिम, अनुपम तथा अतुल्य आप हैं।
– वह तो अविदित, अप्रत्यक्ष आप हैं।
– वह तो वर्णनातीत, नित्य अव्यक्त, अप्रकट आप हैं।
वह अति समीप हैं :
क) वह अपने आन्तर में होने के नाते अति समीप हैं।
ख) वह अपने हर अंग में होने के नाते अति समीप हैं।
ग) वह अपने ही मन तथा बुद्धि में होने के नाते अति समीप हैं।
घ) वह अपने हृदय वासी होने के नाते अति समीप हैं।
ङ) वह सबका ही स्वरूप होने के नाते अति समीप हैं।
वह अति दूर हैं :
किन्तु,
1. जो उन्हें न जान सकें,
2. जो उन्हें न मान सकें,
3. जो अश्रद्धालु लोग हैं,
4. जो अज्ञानी लोग हैं।
उनके लिए वह अति दूर हैं।
नन्हूं! यह ‘दूर’ और ‘समीप’ की बात जीव के दृष्टिकोण से कह रहे हैं। नन्हूं! आत्मा अपना ही स्वरूप है, आत्मा अपना आप ही है, किन्तु :
क) देहात्म बुद्धि के कारण जीव विभ्रान्त हो गये हैं और अपने ही स्वरूप से बिछुड़ गये हैं।
ख) नाम रूप से संग के कारण जीव अपने स्वरूप को नहीं पहचानते।
ग) गुण तथा व्यावहारिक प्रभावों के साथ संग होने के कारण जीव अपने स्वरूप पर नाहक अज्ञानपूर्ण मल चढ़ाता जाता है, इस कारण वह अपने ही स्वरूप को भूल गया है। आत्मा या आपका स्वरूप आपसे दूर नहीं है। वह तो ‘आप’ ही हो, किन्तु आप अपनी उपाधियों से संग के कारण, अपने आप से बहुत दूर हो।
1. आपने अपने आपको अपने आप से आप ही दूर किया है।
2. आपने अपने आप से आप ही ज़्यादती की है।
3. आपने अपने आप से आप ही बेवफ़ाई की है।
4. आपने अपने आत्म स्वरूप को आप ही मानो अपने से दूर कर दिया है।
भगवान जो अपनी बातें करते हैं, वास्तव में वह आपकी ही बातें हैं। वास्तव में भगवान यहाँ भी जो कह रहे हैं, आप ही के विषय में कह रहे हैं, यह तो आप ही के स्वरूप की व्याख्या है।
कुछ पल के लिए अपने नाम रूप की उपाधियों से नाता तोड़ कर देखो, तो शायद यह राज़ समझ आ जाये।