अध्याय १३
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितै: ।।४।।
भगवान कहने लगे, अर्जुन ! क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के विषय में,
शब्दार्थ :
१. बहुत प्रकार से ऋषियों द्वारा,
२. नाना प्रकार के छन्दों से पृथक् पृथक्
३. और ऐसे ही युक्तियों वाले तथा निश्चित अर्थ वाले ब्रह्म सूत्र के पदों में,
४. यह विषय गाया गया है।
तत्त्व विस्तार :
भगवान कह रहे हैं कि आत्म तथा अनात्म का विवेक ऋषियों ने बहुत प्रकार से समझाया है। क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का ज्ञान पूर्व कथित भी है। वेदों और छन्दों में भी यह ज्ञान बहुत प्रकार से समझाया गया है। ब्रह्म सूत्र के पदों में भी यह ज्ञान बहुत युक्तियों द्वारा समझाया है। यानि, यह ज्ञान
1. परम्परा से चला आ रहा है।
2. परम श्रेष्ठ माना गया है।
3. केवल मात्र ज्ञातव्य माना गया है।
4. केवल मात्र प्राप्तव्य माना गया है।
5. अनेकों बार बहु विधि समझाया गया है।
नन्हूं! इस ज्ञान के आधार पर ही तो,
क) ऋषिगण, ऋषिगण कहलाये।
ख) ब्रह्म सूत्र, परम ज्ञान माने गये हैं।
ग) साधारण जीव देवत्व पाता हुआ आत्मवान् बन सकता है।
जो ज्ञान वेदों में तथा ब्रह्म सूत्रों में है, जो ज्ञान ऋषियों ने बहु विधि समझाया है, उसे भगवान पुन: समझाने लगे हैं।
भगवान ने कहा था कि वह उस ज्ञान को विज्ञान सहित कहेंगे, जिसे पाकर जीव परम पद को पा लेता है। जो ज्ञान पहले भी मिल चुका है, उसे भगवान स्वयं विज्ञान सहित समझाने लगे हैं। यह ज्ञान इतने स्पष्ट रूप में और इतने विस्तार से पहले कभी नहीं कहा गया। यहाँ भगवान ने विज्ञान सहित परम तत्त्व रूपा ज्ञान को जीवन में उतारने का मानो ढंग भी बता दिया।
नन्हीं! भगवान ने पहले भी कहा कि ‘यह ज्ञान परम्परा से चला आ रहा है।’
इसी में भगवान का झुकाव निहित है, इसी में भगवान का स्वरूप निहित है। वह सब कुछ विधान करते हुए भी कुछ नहीं अपनाते हैं।