अध्याय २
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।५९।।
शब्दार्थ :
१. निराहारी जीव विषयों से ही निवृत्त होता है,
२. किन्तु स्थित प्रज्ञ परमात्मा को देखकर,
३. इन स्थूल विषयों की रसना से ही उठ जाता है।
तत्व विस्तार :
निराहारी :
1. निराहारी विषय छोड़ देता है।
2. मुखड़ा उनसे मोड़ लेता है।
3. पर मन में चाहना छुपी रहती है।
4. उस रसना का क्या करें, जो बार बार विषयों को देख कर उठ आती है?
5. घोर तप, घोर त्याग किये, विषयों से दूर भी रहे, किन्तु रसना नहीं जाती।
6. जब तक तन के साथ इन्द्रियाँ भी हैं, तब तक रसना नहीं जा सकती।
7. विषय त्याग की बात नहीं, इन्द्रियों का सम्पर्क तो विषयों से रहेगा ही! फिर भगवान क्या कहते हैं?
रसना मन से सम्बन्ध रखती है :
क) रस की रसना छूट जानी चाहिये।
ख) मनो उपभोग तू छोड़ दे।
ग) मन में सूक्ष्म रस से संग करना छोड़ देना चाहिये।
घ) यदि मन राग द्वेष से रहित हो, तो सहज में रस से संग भी मिट जाता है।
ङ) विषय सम्पर्क से तेरे मन में कोई प्रतिक्रिया न हो, तब जानो संग नहीं।
च) जब मन ही न हो स्थूल विषयन् में, तब जानो आपको संग नहीं।
छ) जब आपको रस की रसना नहीं रहे, तो कौन रस लाये आन्तर में?
इस कारण वह कहते हैं :
1. जब आत्मवान् होने लगे तब मन रसना रसिक नहीं रहता।
2. जब मन बुद्धि की बात माने तब भी यह रसना रसिक नहीं रहता।
3. जब यह मन परम की ओर बढ़ जाये तब यह रसना रसिक नहीं रहता।
4. परम भक्ति मन में उठ आये तब भी मन रसना रसिक नहीं रहता।
5. जब भक्ति उठ आती है तब विषयानुरक्ति भूल जाती है।
6. जब हर वृत्ति आत्मा की ओर बढ़ने लगे तब स्थूल भूलने लगता है।
7. जब जीव आत्मवान् हो जाता है तब स्थूल सभी कुछ भूल जाता है।
8. जब मन ही अपना नहीं रहता तो कौन विषय उपभोग करे, कौन विषय को याद करे?
9. अहं ही आज तड़प गया कि मैं तन नहीं हूँ तो तन से क्यों बंधा हूँ?
10. आत्मा से जब मेरा योग हो गया तब तनत्व भाव मिट जायेगा।
11. आत्मा ही बाकी रह जाये और सब कुछ भूल जाये मुझे।
12. मेरा नामोनिशान नहीं रहे, यह तब ही हो यदि मैं तनत्व भाव छोड़ दूँ।
13. आत्मवान् मुझे बनना है, अब तन की बातें क्यों अपनाऊँ मैं?
14. ज्ञान से ख़ुद को पावन करना है तो साधक पल पल ‘मैं तन नहीं हूँ’ की आहुति देता रहता है।
15. दैवी सम्पदा का श्रृंगार करके जीवन में वह नित्य उसका अभ्यास करता रहता है।
16. माँग में माँग सत् की भर कर, वह तो सत् स्वरूप आत्मा से योग करने के लिये बढ़ता है।
दुल्हनिया आत्म मिलन चली,
वह अपना आप ही भूल गई।।
प्रेम में वह मदमस्त हुई,
नाम रूप निज भूल गई।।
– आत्मा से योग ही साधक की पुकार है।
– आत्मा से योग ही साधक का मिलन है।
– आत्मा से योग ही साधक का सुहाग है।
योग सफल हो जाने पर केवल आत्मा रह गया। तब साधक को अपनी नितान्त विस्मृति हो जाती है और साधक की देहात्म बुद्धि का नितान्त अभाव हो जाता है। फिर तन से क्या किया, या तन से किसी ने क्या किया, इन दोनों के प्रति वह मौन हो जाता है। तब वह मन की किसी भी प्रतिक्रिया को नहीं अपनाता, मन के किसी भी गुण को नहीं अपनाता।
भई! तब उसका तन होता ही नहीं, वह अपनाये भी तो कैसे? तब तो वह तन रूप विषय से भी परे हो गया। तब ‘मैं’ तन रूपा विषय का रसपान नहीं कर सकती और उस पर इतरा नहीं सकती, तब ‘मैं’ तन रूपा विषय से घबरा भी नहीं सकती।
नन्हीं! जब वह तन ही नहीं तो तनो विषय भी गया, बाकी आत्मवान् ही रह जाता है। वह स्थित प्रज्ञ है।