अध्याय १०
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्व: सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षय: कालो धाताहं विश्वतोमुख:।।३३।।
भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. अक्षरों में मैं अकार हूँ
२. और समासों के मध्य में मैं ‘द्वन्द्व’ हूँ,
३. मैं ही अक्षय काल हूँ,
४. मैं ही सब ओर मुख वाला धाता हूँ।
तत्व विस्तार :
क) भगवान कहते हैं, “मैं ही अक्षरों में अकार हूँ”,
1. यानि वर्णमाला में मैं ‘अ’ वर्ण हूँ।
2. सम्पूर्ण वर्ण रूप अक्षरों में मैं निहित रहने वाला ‘अ’ वर्ण हूँ।
3. अक्षरों में ‘अ’ ही सबसे श्रेष्ठ तथा अनिवार्य वर्ण माना जाता है।
भगवान कहते हैं, ‘वह मैं ही हूँ।’
ख) समासों के मध्य में द्वन्द्व भगवान ही हैं।
1. दो शब्दों के मिल कर एक होने को समास कहते हैं।
2. द्वन्द्व, दो विरोधी अवस्थाओं को संकेत करने वाले शब्दों का मिलन है।
3. द्वन्द्व, दो विपरीत गुणों का जोड़ा है।
4. द्वन्द्व, दो विरोधात्मक भावों को जन्म देने वाले होते हैं।
भगवान कहते हैं ‘यह द्वन्द्व मैं हूँ।’
नन्हीं! जब द्वन्द्व मन में उठे तो घबराना मत; यूँ मानना कि भगवान ही दोनों रूप धर कर तुम्हारी परीक्षा ले रहे हैं।
ग) भगवान कहते हैं, “अक्षय काल मैं हूँ।”
1. ‘मैं ही सबको मृत्यु देने वाला, किन्तु स्वयं कभी क्षय न होने वाला काल हूँ।
2. पूर्ण जहान को मृत्यु देने वाला मैं ही हूँ।
3. जड़ चेतन सब काल ग्रसित होते हैं; उन सबको ग्रसने वाला मैं ही हूँ।’
घ) फिर भगवान कहते हैं, कि “सब ओर मुख वाला धाता मैं ही हूँ।” यानि, ‘सब ओर मुख करके देखने वाला,
1. सम्पूर्ण जीवों को उनके कर्मों के अनुसार फल देने वाला मैं ही हूँ।
2. विधान को रचने वाला मैं ही हूँ।
3. और धारण करने वाला मैं ही हूँ।’
देख नन्हीं! यह सब कुछ बता कर मानो भगवान अर्जुन को मना रहे हैं कि ‘जो कुछ भी है, परमात्मा ही है।’ मानो उसे कह रहे हैं, ‘यदि तू तनत्व भाव छोड़ कर आत्मा में आत्मा हो जाये, तब तू भी :
1. मेरी कथनी का राज़ समझ सकेगा।
2. ज्यों मैं सब कुछ हूँ, वैसे ही अनुभव कर सकेगा।
3. अपनी व्यक्तिगतता छोड़ कर समष्टि के तद्रूप हो सकेगा।’
नन्हीं! इस स्थिति पर पहुँचाने के लिये भगवान मानो अर्जुन के जीवन के हर पहलू में, जो कुछ भी उसके सम्पर्क में आ सकता है, उसे वह अपना आप कह रहे हैं, ताकि अर्जुन अपनी छोटी सी व्यक्तिगतता को भूल कर भगवान की विशालता में खो जाये और हर भाव, गुण, स्थूल विषय में भगवान को याद रखे।