Chapter 9 Shloka 25

यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृव्रता:।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।२५।।

Those who worship the deities attain those deities;

worshippers of their ancestors

gain access to their ancestors;

those who worship the body acquire the body;

but My devotee attains Me alone.

Chapter 9 Shloka 25

यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृव्रता:।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।२५।।

Now the Lord tells us how one attains the fruit of worship:

Those who worship the deities attain those deities; worshippers of their ancestors gain access to their ancestors; those who worship the body acquire the body; but My devotee attains Me alone.

Listen, little one and listen Kamla, mother of my little one!

1. One receives according to one’s values.

2. One becomes like the object of one’s faith.

3. An individual’s attributes and life are granted to him in accordance with his faith.

4. Whatever he believes in is what he becomes. All other worship is motivated by some desire – except for those who desire only the Lord; they are selfless in their lives, actions, worship and knowledge.

a) Such individuals become the epitome of selflessness.

b) They attain the essence of divine attributes.

c) They remain ever unaffected by all qualities.

d) They forget themselves.

e) They forget their bodies.

f) They forget their minds.

g) So oblivious are they to their own intellect that they forget to use that intellect in self-interest.

h) Those devotees of the Lord attain the Lord.

The Lord now says:

1. Those who worship other gods, obtain divine powers from them and perform divine deeds like the gods they worship – they are very great people.

2. Those who worship their ancestors, cherish the values and traditions upheld by them and attain greatness through the practice of those values.

3. Those who worship other beings also attain greatness.

Little one, all these are great souls; however, they are not all devotees of the Lord, so they do not attain the Lord.

The Lord’s devotee:

a) begins to forget himself;

b) attains unity with the Lord;

c) surrenders his body in the Lord’s service;

d) begins to transcend the body idea.

The devotee of the Lord seeks nothing from the Lord. He simply wants to return to the Lord what is His. There is no other purpose in his life. He says, “Lord, Thou hast created this body for Thy divine purpose. This family, these relations, this world are all a gift from Thee – in fact, they are Thine. Thou hast pre-ordained the destiny of this body for Thy own purpose. This body lives only for Thee, disseminating Thy qualities. Annihilate this ‘I’ and take what is Thine into Thy possession!”

Little one, he who truly believes and says this, will be able to perform yagya. Only such a one can be a true devotee of the Lord.

अध्याय ९

यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृव्रता:।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।२५।।

अब भगवान बताते हैं कि कैसे उपासना अनुसार फल मिलता है।

शब्दार्थ :

१. देवताओं को पूजने वाले देवताओं को पाते हैं,

२. अपने पितरों को पूजने वाले अपने पितरों को पाते हैं,

३. शरीर को पूजने वाले शरीर को पाते हैं,

४. (और) मेरे भक्त मेरे को पाते हैं।

तत्व विस्तार :

नन्हीं जान्! और नन्हीं की जननी कमला, सुन!

1. जैसा किसी का भाव होता है, वैसा उसे मिल जाता है।

2. जिस में श्रद्धा जिसकी हो, वैसा वह बन जाता है।

3. जीव श्रद्धा अनुकूल गुण तथा जीवन पाता है।

4. जैसी जिसकी श्रद्धा हो, वह वैसा ही हो जाता है। अन्य पूजन सब कामना पूर्ण ही हैं। जो केवल भगवान को चाहते हैं, उनके जीवन, कर्म, उपासना, ज्ञान, सभी निष्काम ही हैं।

क) वे निष्कामता की प्रतिमा ही बन जाते हैं।

ख) वे दैवी गुण के स्वरूप को पाते हैं।

ग) वे गुणों से नित्य अप्रभावित हो जाते हैं।

घ) वे अपने आपको भूल ही जाते हैं।

ङ) वे अपने तन को भूल ही जाते हैं।

च) वे अपने मन को भूल ही जाते हैं।

छ) अपने लिये अपनी बुद्धि काम कर सकती है, वे यह भूल ही जाते हैं।

ज) वे भगवान के भक्त भगवान को ही पाते हैं।

भगवान यहाँ कह रहे हैं कि :

1. जो देवताओं को पूजते हैं, वे देवताओं से देवत्व शक्ति पाते हैं, और देवताओं जैसे काम भी कर सकते हैं, वे बहुत श्रेष्ठ हैं।

2. जो पितरों को पूजते हैं, वे पितृ कुल लाज तथा पितृ सिद्धान्त बहुत अच्छी तरह निभाते हैं और श्रेष्ठ बनते हैं।

3. इन्सानों का पूजन करने वाले भी बहुत श्रेष्ठ बनते हैं।

नन्हीं! ये सभी श्रेष्ठ हैं, किन्तु ये भगवान के भक्त नहीं, इसलिये भगवान को नहीं पाते।

भगवान का भक्त :

1. अपने आपको भूलने लगता है,

2. भगवान में एकत्व पा लेता है,

3. अपना तन भगवान को दे देता है,

4. अपने तनत्व भाव से उठने लगता है।

नन्हीं! भगवान का भक्त तो भगवान से कुछ भी नहीं माँगता। वह तो केवल जो भगवान का ही है, उन्हें वापस देना चाहता है। वह जीवन में अपना निजी कोई प्रयोजन नहीं मानता। वह मानो कहता हो कि, ‘भगवान! यह तन आपने किसी प्रयोजन अर्थ रचा होगा, यह नाते, रिश्ते, कुल, संसार सब आपने दिये और आप के ही हैं। आपके विधान में इस तन की जो भी रेखा है, वह आपने अपने लिये बनाई। यह तन आपके ही गुण बहाता हुआ, आपके ही लिये जीवित है। आप मेरी ‘मैं’ को मिटा कर अपनी वस्तु सम्भाल लीजिये।’

नन्हीं! जो ऐसा कहेगा, वह नित्य यज्ञ कर सकेगा। वही भगवान का भक्त हो सकेगा।

Copyright © 2024, Arpana Trust
Site   designed  , developed   &   maintained   by   www.mindmyweb.com .
image01