Chapter 9 Shloka 17

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:।

वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।।

I am the Father, the Mother, the Sustainer

and the Grandsire of this entire Universe.

I am also that which is worth knowing,

 the pure Omkaarthe Rigveda,

the Saamveda and the Yajurveda.

Chapter 9 Shloka 17

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:।

वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।।

Now Bhagwan says:

I am the Father, the Mother, the Sustainer and the Grandsire of this entire Universe. I am also that which is worth knowing, the pure Omkaar; the Rigveda, the Saamveda and the Yajurveda.

Little one, you can understand this in two ways. First, through the attitude of a gyani bhakta, who worships the Lord as One who inheres all; secondly through the Lord’s own proclamation that He is all.

The Lord is undoubtedly all. However, you must understand how an embodied being can acknowledge such a fact.

Little aspirant, when the sense of individuality fades away, the ‘I’ or ego of the embodied soul relinquishes its identification with the body and merges into the Atma. Then he claims no body as his own. He then believes “Either all these bodies are mine, or not even one body is mine.”

Rightly so! When the body idea no longer exists, which body can that embodied soul claim? He has become one with the Indestructible, Eternal Atma Itself. His ‘I’ has attained unity with that Eternal Essence. Whoever approaches that body with any desire whatsoever, that One, who is the Atma in essence, identifies completely with that seeker who approaches him and helps him in his tasks with all his might.

The Lord, Himself ever pure, peerless and unmanifest in essence, says to Arjuna, “O Arjuna! I am the Father, Mother, Grandsire and Sustainer of this Universe. I am also Knowledge Itself epitomised by the Rig, Saam and Yajur Vedas.”

Little one, imagine even for a few moments that you are not the body. Forget your body just for a few moments and you may perhaps understand the secret inherent in the Lord’s words. Distance yourself from your body even for a few minutes and you may be able to practice the renunciation of the body. In fact, if you sever your relationship with your one body, that body will then belong to all and you will be witness to the unity in all.

From Bhagwan Krishna’s point of view:

1. The whole of creation is pervaded by the Atma.

2. All is His very Essence.

3. He is not even the enunciator of the Gita – for if He has expounded the Gita, then He is also the exponent of the Vedas.

Little one, either He is all or He is nothing at all.

अध्याय ९

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:।

वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।।

अब भगवान कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. इस सम्पूर्ण जगत का मैं पिता, माता, धाता और पितामह हूँ

२. और जानने योग्य पवित्र ओम्कार,

३. तथा ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! इसे दो दृष्टिकोण से समझ सकते हैं। एक तो यह, कि एकत्व में उपासना करने वाला ज्ञानी भक्त भगवान को ही सब कुछ मानता है; दूसरा यह कि भगवान स्वयं कह रहे हैं कि वह ही सब कुछ हैं।

भगवान तो सब कुछ हैं ही, किन्तु तनधारी यह सब कुछ कैसे कह सकता है, इसे समझ लो।

नन्हीं साधिका! जब जीवत्व भाव का अभाव हो जाता है तो तनधारी की ‘मैं’ तनो तद्‍रूपता को त्यागकर आत्मा में विलीन हो जाती है, तब उसका कोई तन नहीं रहता। फिर वह यह कहता है, ‘या सम्पूर्ण तन मेरे हैं या कोई भी तन मेरा नहीं है।’

नन्हीं! बात तो ठीक ही है। जब तनत्व भाव ही नहीं रहता, तब वह किस तन को अपना तन कहे? वह तो अखण्ड, अक्षर, आत्म तत्व में लीन हो चुका होता है। उसकी ‘मैं’ तो अक्षर स्वरूप में एकत्व पा चुकी होती है। जीवन में उसके तन के सम्मुख जो भी आता है और उससे जो कुछ भी चाहता है, मानो वह आत्म स्वरूप, आने वाले तथा चाहने वाले के तद्‍रूप होकर, उसे उसके कार्यों में सहायता देता है।

यहाँ भगवान, जो स्वयं अलौकिक, नित्य विशुद्ध आत्मा हैं तथा नित्य निराकार हैं, वह अर्जुन से कहते हैं, “देख अर्जुन! जगत को धारण करने वाला, जगत का पिता तथा माता, जगत का पितामह, सब मैं ही हूँ। फिर सम्पूर्ण ज्ञान, पूर्ण ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।”

नन्हीं! कुछ पल के लिये कल्पना करके ही देख कि ‘मैं तन नहीं हूँ!’ कुछ पल के लिये ध्यान लगा कर देखो कि तुम तन नहीं हो। कुछ पल के लिये अपने आपको यानि, अपने तन को भुला कर तो देख! शायद तुझे यह राज़ समझ आ जाये। कुछ पल के लिये अपने आपको अपने तन से दूर करके देख, तब शायद तू अपने तनत्व भाव के त्याग का अभ्यास कर सके। वास्तव में यदि तुम एक तन से नाता तोड़ दो, तो तुम्हारा तन तो सब का हो जाता है और तुम सब में आत्म का एकत्व देखने लगते हो।

भगवान के दृष्टिकोण से,

1. पूर्ण आत्म तत्व ही है।

2. पूर्ण उनका स्वरूप ही है।

3. गीता के वक्ता भी वह नहीं हैं, क्योंकि यदि गीता उन्होंने कही तो सम्पूर्ण वेद भी उन्होंने कहे हैं।

नन्हीं! या वह सब कुछ हैं, या वह कुछ भी नहीं हैं।

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