Chapter 9 Shloka 16

अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वाधाहमहमौषधम्।

मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।।१६।।

I am the resolve, I am the yagya,

 I am the offering to the ancestors,

I am the remedy, I am the mantra,

 I am the offering of clarified butter,

 I am the fire, and I am the very act

of offering oblations to the sacred fire.

Chapter 9 Shloka 16

अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वाधाहमहमौषधम्।

मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।।१६।।

The Lord now speaks of the adherent of Gyan Yagya. For him:

I am the resolve, I am the yagya, I am the offering to the ancestors, I am the remedy, I am the mantra, I am the offering of clarified butter, I am the fire, and I am the very act of offering oblations to the sacred fire.

For one who performs gyan yagya incessantly, the Lord is the ‘Kratu (क्रतु).

a) The resolve of yagya.

b) The ability or potential to perform such a yagya.

c) The intellect necessary to perform such yagya.

d) The latent memory of such yagya that persists in the individual’s intellect.

Yagya karma is that which is performed in the great cauldron of such sacrificial worship.

Yagya (यज्ञ)

Little one, for the one who performs the gyan yagya:

a) the world which constitutes the cauldron of the devotee’s sacrificial offering is Brahm;

b) Brahm Himself is the prowess or ability to perform such a gyan yagya;

c) the constant memory that Brahm is all, is also to be attributed to Brahm;

d) the yagya itself is the Lord;

e) the Lord constitutes ‘svadha’ as well.

Svadhaa (स्वधा)

Svadhaa is that offering which is given to one’s forefathers. It could therefore be concluded that the food that sustains the traditions of one’s forefathers is svadhaa. Svadhaa constitutes the noble attributes of one’s forefathers. It connotes the culture of one’s ancestors.

Aushadha (औषध)

Aushadha is that:

a) which annihilates disease;

b) which enhances health;

c) which nourishes the body;

d) which energises the sense organs.

1. The remedy which erases all the diseases of one who practices gyan yagya,

2. The medicine which establishes one in one’s Self,

3. The potion which fills a divine energy into the organs of perception and action,

4. That medication which renders the intellect pure and pristine,

5. The remedy which eradicates the affliction of birth and death,

is naught but the Lord Himself.

Mantra (मन्त्र)

For the gyani bhakta, or the devotee replete with knowledge who performs gyan yagya, the mantra or the devotional chant that accompanies such a yagya is also the Lord Himself.

Mantra is that:

a) which is uttered to invoke a certain deity;

b) which is chanted to invoke the power of a particular deity;

c) which is a eulogy of someone’s divinity and unique nature;

d) which is an elucidation of someone’s divine and unique attributes.

The sacred dialogue between the Lord and one who has a strong and fervent desire for union with the Lord is a mantra. A mantra is a heartfelt prayer. The utterances that emanate from the heart of one who is enraptured with love for the Supreme constitute the essence of a mantra.

Little one, the strength of a mantra rests in the truth of the seeker’s heart; or his love for the Truth. Such a mantra can transform the individual instantly.

Ajyam (आज्यम्)

1. Liquefied, clarified butter.

2. After ‘churning’ Vidya and Avidya with the ‘stick’ of the discerning intellect, the ‘butter’ of knowledge emerges; its enlightened practice and translation into one’s life is the flow that is known as Ajyam.

3. Supreme nectar is Ajyam.

The Lord says, “I am Ajyam” and the gyani bhakta believes and accepts this fact completely.

Hutam (हुतम्)

The Lord now says, “I am the oblation offered by a gyani bhakta into the sacrificial fire of knowledge. I am also the very act of yagya.”

Little one, now understand all this carefully. The Lord is describing the attitude of unity that imbues the mind of a gyani bhakta. Such a gyani bhakta incessantly believes the Lord to be the doer of every deed performed by his body. Indeed, he truly knows that every deed enacted by his body is also the Lord.

One could say that it is not he who abides in his own body – instead, his body is a dwelling place for his Lord. He does not claim his body, or any action of that body. He does not claim his intellect or his mind. He is ever absorbed in the Atma. Perceived from yet another point of view, the Lord Himself proclaims through this shloka, that He Himself constitutes all the actions performed in life and He is in fact the very flow of life.

अध्याय ९

अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वाधाहमहमौषधम्।

मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।।१६।।

भगवान अब ज्ञान यज्ञ के उपासक के विषय में कहते हैं कि उसके लिये :

शब्दार्थ :

१. मैं ही क्रतु: हूँ, मैं ही यज्ञ हूँ,

२. मैं ही स्वधा हूँ, मैं ही औषध हूँ,

३. मैं ही मंत्र हूँ, मैं ही घृत हूँ,

४. मैं ही अग्न हूँ और मैं ही हुतम् हूँ।

तत्व विस्तार :

भगवान कहते हैं, नित्य ज्ञान यज्ञ करने वाले के लिये ‘क्रतु:’ मैं ही होता हूँ।

क्रतु :

क्रतु: का अर्थ है,

क) यज्ञ करने का संकल्प।

ख) यज्ञ करने की शक्ति या योग्यता।

ग) यज्ञ करने की बुद्धि।

घ) जिस जीव की बुद्धि में नित्य यज्ञ की निहित स्मृति बनी रहे।

यज्ञ कर्म वे हैं जो महा हवन कुण्ड में किये जाते हैं।

यज्ञ :

नन्हीं! ज्ञान यज्ञ करने वाले के लिये,

1. संसार रूपा महा यज्ञ कुण्ड ब्रह्म है।

2. ज्ञान यज्ञ करने की शक्ति भी ब्रह्म है।

3. उसमें जो निरन्तर स्मृति बनी रहती है कि पूर्ण ब्रह्म ही है, वह तो इसे भी ब्रह्म ही समझता है।

4. ऐसा जान कि यज्ञ करने वाले के लिये यज्ञ भी भगवान ही होते हैं।

5. ऐसा जान कि यज्ञ करने वाले के लिये स्वधा भी भगवान ही होते हैं।

स्वधा :

‘स्वधा’ उस अन्न को कहते हैं, जो पितरों को दिया जाता है। वह अन्न, जो पितरों की परम्परा को पुष्टित रखता है, वह स्वधा है। पितरों के शुभ गुण को स्वधा कहते हैं। पैतृक संस्कृति ही स्वधा है।

औषध :

औषध उसे कहते हैं, जो,

क) रोग को मिटा दे।

ख) स्वस्थ बना दे।

ग) तन को पुष्टित करे।

घ) इन्द्रिय शक्ति को पुष्टित कर दे।

ज्ञान यज्ञ करने वाले ज्ञानी भक्तों के

1. सारे रोग मिटाने वाली औषध,

2. अपने आप में स्थित कराने वाली औषध,

3. इन्द्रियों में देवताओं के समान शक्ति देने वाली औषध,

4. बुद्धि को पावन करने वाली औषध,

5. जन्म मृत्यु रूपा रोग को मिटाने वाली औषध, भगवान ही हैं।

मन्त्र :

ज्ञान यज्ञ करने वाले ज्ञानी भक्त के लिये मन्त्र भी भगवान ही हैं।

मन्त्र वह होता है,

क) जो किसी देवता को सम्बोधित करके कहा गया हो.

ख) जो किसी देवता की शक्ति का आवाहन करते हुए कहा गया हो।

ग) जो किसी के दिव्य तथा अलौकिक तत्व का गुण वर्णन हो.

घ) जो किसी दिव्य तथा अलौकिक गुण सार की व्याख्या हो।

परम से योग की तीव्र तथा हार्दिक चाहना वाले का भगवान से वार्तालाप मन्त्र ही होता है। मन्त्र हार्दिक प्रार्थना को कहते हैं। परम प्रेम में विह्वल हुए जीव के हृदय से बहते हुए उद्गार मन्त्र कहलाते हैं।

नन्हीं! मन्त्र का बल जीव की सत्यता पर आश्रित है। मन्त्र का बल जीव की सत्य प्रियता पर आश्रित है। मन्त्र जीव को पल में बदल सकता है।

आज्यम् :

क) आज्यम् पिघले हुए घृत को कहते हैं।

ख) विवेक रूपा मथनी से विद्या और अविद्या के मन्थन के पश्चात् जो ज्ञान रूपा माखन निकले, जीवन में उसके विज्ञानमय परिवर्तन रूपा बहाव को आज्यम् कहते हैं।

ग) सर्वोत्तम अमृत रस सार को आज्यम् कहते हैं।

भगवान कहते हैं, “यह घृत मैं ही हूँ।” ज्ञानी भक्त जीवन यज्ञ करते हुए मानता है कि यह घृत भगवान ही हैं।

हुतम् :

फिर भगवान कहते हैं कि, “ज्ञान अग्न में ज्ञानी भक्त जो आहुति देते हैं, वह ‘हुतम्’ भी मैं ही हूँ और यह हवन करने की क्रिया भी तो मैं ही हूँ।”

नन्हीं! इस सब को ध्यान से समझ ले। यहाँ भगवान एकत्व रूप में ज्ञानी भक्त की उपासना का विवरण दे रहे हैं। इसे ‘अहंग्रह’ उपासना भी कहते हैं। ज्ञानी भक्त निरन्तर, अहर्निश, अपने तन के हर क्रिया कर्म तथा कर्त्ता को भगवान का ही मान कर जीता है।

वह मानो अपने तन में स्वयं न हो, बल्कि उसके तन में भगवान ही रहते हैं। वह न अपने तन को अपनाता है, न अपने कर्मों को अपनाता है, न अपनी बुद्धि को अपनाता है और न ही अपने मन को अपनाता है वह तो निरन्तर आत्मा में ही निमग्न रहता है। इसे यदि दूसरे दृष्टिकोण से लें तो भगवान स्वयं कह रहे हैं कि जीवन की सम्पूर्ण क्रियायें और प्रवाह वह आप ही हैं।

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