अध्याय २
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते।।४४।।
अब भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. उस वाणी द्वारा, हरे हुए चित्त वालों,
२. तथा भोग और ऐश्वर्य में आसक्ति वालों की,
३. निश्चयात्मिका बुद्धि, समाधि में नहीं होती।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! पहले यह समझ ले कि निश्चयात्मिक तो वे लोग होते हैं जो भोग ऐश्वर्य आसक्त तथा वाणी द्वारा हरे हुए चित्त वाले होते हैं। वे भी अपनी चाहना पूर्ति के लिये अनेकों दृढ़ निश्चय करते हैं और उन निश्चयों पर आरूढ़ होकर उन्हें पूरा करते हैं। किन्तु उन लोगों की चाहनायें ही इतनी अधिक होती हैं कि उनका मन विभिन्न दिशाओं में भागता रहता है।
1. रुचिकर के पीछे जाने वाले लोग एक ही विषय को पाकर तृप्त नहीं हो जाते।
2. फिर, इनके मन में तो अनेकों चाहनायें होती हैं।
3. जीव को लाखों चीज़ें अच्छी लगती हैं। गर वह सबको ही पाना चाहे तो मन नित्य विभ्रान्त ही रहता है।
4. जग से मान की चाहना भी हो तो भी जीव को उसके लिये :
क) अपने अनेकों अवगुण छुपाने पड़तेहैं।
ख) अपनी निहित कामनाओं को छिपाना पड़ता है।
ग) ज़ुबान पर कुछ और होता है और दिल में कुछ और होता है।
घ) अनेकों प्रकार के लोभ घुमड़ आते हैं।
ङ) भोगैश्वर्य चाहने वाला तो संसार भर के भोग्य पदार्थ पाकर भी तृप्त नहीं होता।
ऐसे लोगों की समाधि नहीं लगती। वे एकाग्र चित्त नहीं हो सकते। वे मानसिक चैन नहीं पा सकते।
नन्हीं! जब तक चित्त वृत्तियाँ निरुद्ध नहीं होतीं, तब तक समाधि नहीं लगती, तब तक योग में स्थिति नहीं होती।