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Chapter 11 Shlokas 39, 40
वायुर्यमोऽग्निर्वरुण: शशांक: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्व: पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते।।३९।।
नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व:।।४०।।
You are Vaayu, Yama, Agni, Varun, Chandrama and Prajapati. You are also the progenitor of Prajapati. A thousand salutations to You; repeated salutations to You! Salutations unto You from all sides – from the front, from behind and from all sides. O Self of All, You possess unlimited prowess and boundless valour. You pervade this entirety. Therefore You are this Whole.
Chapter 11 Shlokas 39, 40
वायुर्यमोऽग्निर्वरुण: शशांक: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्व: पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते।।३९।।
नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व:।।४०।।
Glorifying the myriad forms of the Lord, Arjuna says, O Lord!
You are Vaayu, Yama, Agni, Varun, Chandrama and Prajapati. You are also the progenitor of Prajapati. A thousand salutations to You; repeated salutations to You! Salutations unto You from all sides – from the front, from behind and from all sides. O Self of All, You possess unlimited prowess and boundless valour. You pervade this entirety. Therefore You are this Whole.
O Supreme Lord, my thousand salutations to Thee. O Lord of this Universe, I bow at Thy feet. O Support of all, O Lord of this life, how can I pay fitting homage to Thee? Thou art the mainstay of all knowledge and the Master of all learning – how shall I sing Thy praise? O Compassionate One, O Merciful Lord, Thou art a lover of Thy devotees. O Emancipator from the darkness of impurities, Thou art Purity Itself. Repeatedly I bow at Thy feet. Accept my obeisance! Grant us Thy mercy, that this head once bowed at Thy feet is never lifted again. It is Thee who has wrought the universal law and individual destinies. O Merciful Lord, be Thou compassionate and grant that my homage reaches Thee!
Thou art the Essence of Love and Love manifested. Thou art the Repository of all power. Thou art the indestructible, unified Whole – divine pure Atma Itself.
Accept my humble obeisance Lord of my heart! I lay my head at Thy feet. Forgive me just this once!
Little one, such a salutation is an integral part of the sadhak’s spiritual endeavour. Understand the complete connotation of Namaskaar.
Namaskaar
1. To pay homage.
2. To worship.
3. To make an offering of one’s faith in humility.
4. To bow humbly.
5. To accord high esteem to another.
6. To accept one’s dependency on another.
7. To bow one’s head before the intellect of another.
8. To surrender oneself.
9. To humbly praise another, acknowledging the other’s greatness.
Little one, until the aspirant does not learn to bow his head before another, he is not fit to be known as a sadhak. As long as one considers oneself to be superior, such an obeisance is impossible. Once one bows one’s head before the Lord with a sincere heart, it will never raise itself again for the rest of one’s life. If the individual acknowledges the Lord’s superiority and considers the Lord to be even greater than himself, he will never disregard the Lord’s injunctions.
A sadhak who has prostrated himself before the Lord becomes subservient to the Lord. Then he humbly renounces even his ego at the Lord’s feet. Once this obeisance or namaskaar takes place, the spiritual aspirant advances rapidly on the path of the spirit.
Little one, the sadhak pleads with the Lord, “Pray accept my homage just once. If you accept my obeisance, you would have accepted me. Then Lord, my mind will never be able to snatch me away from You.”
a) The genuine supplication of the spiritual aspirant is his worship.
b) This is his glorification of the Lord.
c) This is his plaintive cry.
d) This is a sign of his sincerity.
e) Such homage humbles the aspirant’s ego.
f) It pulls him towards the Lord.
g) It renders him egoless.
Little one, if the sadhak’s obeisance is indeed sincere, I truly tell you, the Lord Himself comes to lift such a one. The Lord accepts and embraces such a humble devotee.
अध्याय ११
वायुर्यमोऽग्निर्वरुण: शशांक: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्व: पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते।।३९।।
नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व:।।४०।।
अनन्त रूप भगवान का स्तुवन् करते हुए अर्जुन कहने लगे, ‘हे भगवान!
शब्दार्थ :
1. आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा और प्रजापति हैं
2. और प्रजापति के भी पिता हैं।
3. आपको सहस्रों बार नमस्कार करता हूँ।
4. आपको फिर से नमस्कार हो।
5. बार बार नमस्कार हो।
6. आपको आगे से और पीछे से नमस्कार हो।
7. हे सर्वात्मन्! आपको सब ओर से नमस्कार हो।
8. आप अनन्त वीर्य और अनन्त पराक्रम वाले हो,
9. परिपूर्ण में आप समाये हो,
10. इसलिये आप पूर्ण ही हो।’
तत्व विस्तार :
हे परम पति परमेश्वर,
कोटि कोटि प्रणाम तुझे।
हे विश्वेश्वर जगदीश्वर,
नत्मस्तक करूँ प्रणाम तुझे।।
सर्वाधार प्राणेश्वर तू,
नमन तेरा कैसे मैं करूँ?
ज्ञानाधार ज्ञानेश्वर तू,
महिमा तेरी कस गा सकूँ?
करुणापूर्ण हे दयानिधि,
भक्त वत्सलता है तू।
मल अंधियारा विमुक्त कर,
केवल पावनता है तू।।
बार बार करूँ नमस्कार,
नमस्कार स्वीकार करो।
सीस झुका पुनि उठे नहीं,
बस इतनी अब कृपा करो।।
धाता विधाता आप हो,
इतना अनुग्रह हो जाये।
कृपा पुंज तुम करुणा करो,
नमन सफल मेरा हो जाये।।
प्रेम स्वरूप तुम प्रेम रूप,
अखिल बल पूर्ण तुम हो।
अखण्ड और अद्वैत तुम्हीं,
दिव्य विशुद्ध आत्म तुम हो।।
बस नमस्कार करो स्वीकार,
हृदयेश्वर मेरे तुम ही हो।
मैं सीस तुम्हारे चरण धरूँ,
इक बेरी बस क्षमा करो।।
नन्हीं जान्!
साधक के लिए नमस्कार उसकी साधना का अनिवार्य अंग है।
नमस्कार का अर्थ ज़रा ध्यान से समझले!
नमस्कार :
नमस्कार का अर्थ है :
1. वन्दना करना।
2. अर्चना करना।
3. विनीत भाव से श्रद्धांजलि अर्पण करना।
4. विनम्रता से झुक जाना।
5. किसी को उच्च कोटि का सम्मान देना।
6. किसी की अधीनता मान जाना।
7. अपने सीस को किसी के सीस के सन्मुख झुका देना।
8. अपने आपको अर्पित करना।
9. नतमस्तक होकर किसी श्रेष्ठ का अभिवादन करना।
नन्हीं! जब तक साधक नमन नहीं करता तब तक वह साधक कहलाने के योग्य ही नहीं है। जब तक जीव अपने आप को श्रेष्ठ समझता है तब तक वह नमन नहीं कर सकता। सीस यदि एक बार भगवान के सामने हृदय से झुका दे, तब वह अपने सीस को जीवन भर नहीं उठा सकता। यदि जीव भगवान को सर्वश्रेष्ठ कहता हुआ, उन्हें अपने से भी श्रेष्ठ मान ले तो वह भगवान की कथनी को कभी नहीं टाल सकता।
नमस्कार करने के पश्चात् साधक मानो भगवान के अधीन हो जाता है। तब साधक विनीत भाव से अपने अंहकार का भी भगवान के चरणों में त्याग कर देता है। एक बार नमस्कार हो जाये तो साधक साधना के पथ पर काफ़ी आगे निकल जाता है।
नन्हीं लाडली! साधक तो भगवान से तड़प कर यही कहता है कि :
‘एक बार मेरा नमस्कार स्वीकार तो करो। तूने मेरा झुकना स्वीकार कर लिया तो मानो तू मुझे ही स्वीकार कर लेगा। हे भगवान! तब मेरा मन मुझे तुझ से वापस नहीं ले सकेगा।’
साधक का हार्दिक नमन ही तो
क) उसकी पूजा है।
ख) उसका भजन है।
ग) उसकी आर्त पुकार है।
घ) उसकी सत्यता का सूचक है।
ङ) उसके अहं को झुका देता है।
च) उसको भगवान की ओर खेंच लेता है।
छ) उसको अंह रहित भी बना देता है।
और फिर नन्हीं! यदि हार्दिक नमन हो जाये तो सच कहते हैं भगवान ऐसे झुके हुए को स्वयं उठाने आते हैं। भगवान ऐसे झुके हुए को स्वयं अंग लगाते हैं।