अध्याय ११
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्।।१७।।
अर्जुन स्वयं भगवान को बता रहे हैं कि वह भगवान के विश्व रूप में क्या देख रहे हैं। वह कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. मैं आपको मुकुटयुक्त, गदायुक्त तथा चक्रयुक्त,
२. तेज का पुंज रूप प्रकाशमान,
३. प्रज्वलित अग्नि और सूर्य की चमक वाला,
४. कठिनता से देखा जाने वाला,
५. (और) अप्रमेय स्वरूप, सब ओर से देखता हूँ।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! अर्जुन भगवान की महिमा गान करते हुए कहते हैं कि, ‘आपको मैं,
1. मुकुट धारे हुए देखता हूँ।
2. हाथ में गदा और चक्र धारण किये हुए देखता हूँ।
3. सर्व ओर से प्रकाशमान हुए तेज का पुंज स्वरूप देख रहा हूँ।
4. आप, जो कठिनता से दिखने वाले हो, मैं आपको देख रहा हूँ।
5. आप, जो दमकती हुई अग्न तथा सूर्य के समान हो, आपके उस प्रज्वलित रूप को मैं देख रहा हूँ।
6. आप जो अप्रमेय हैं, मैं तो उसको भी देख रहा हूँ।’
अप्रमेय :
नन्हीं! अप्रमेय को समझ ले!
अप्रमेय का अर्थ है :
क) जो जाना न जा सके।
ख) जो मन, बुद्धि और इन्द्रियों का विषय न हो।
ग) अप्रमेय, सीमा रहित को भी कहते हैं।
यहाँ अर्जुन भगवान को अप्रमेय कहते हुए कह रहे हैं कि, ‘मैं आपको देख रहा हूँ, जो नहीं देखा जा सकता, उसे देख रहा हूँ।’
नन्हीं! अर्जुन भगवान को अपने चर्म चक्षुओं से नहीं देख रहे थे, वह तो भगवान को भागवत् देन दिव्य चक्षुओं से देख रहे थे। यूँ कह लो कि अर्जुन अपने आन्तर में ही भगवान की दिव्य महिमा देख रहे थे। जो वास्तविक आत्मा का स्वरूप है, सत्त्व से संग के कारण उसे अपना न मान कर, भगवान का जान कर, उसका साक्षात्कार कर रहे थे। ब्रह्म तत्व में वह सगुण ब्रह्म के स्वरूप के दर्शन कर रहे थे।
यदि उस पल अर्जुन का भी अपने तन से नितान्त संग अभाव हो जाता तो वह ये सब कुछ द्वैत में न देखते, भगवान से एकरूपता पाकर अद्वैत में देखते। यानि वह सब आप ही हैं, यह जान लेते, आत्मा में एक हो जाते और वह स्वयं जीवन मुक्त होकर भगवान में विलीन हो जाते।
अर्जुन की स्थिति :
वहाँ अभी द्रष्टा, दृश्य तथा दर्शन की त्रिपुटी बाकी थी; अभी साध्य, साधना और साधक बाकी थे; अभी ज्ञेय, ज्ञान और ज्ञाता बाकी थे; इस कारण वह भगवान के राही आत्म तत्व की पूर्णता देखते हुए भी स्वयं उससे एकरूपता नहीं पा रहे थे।
इसलिये उन्होंने कहा, ‘अलौकिक अनुपम रूप, अप्रत्यक्ष, अप्रकट तू आप है; दुर्विज्ञेय, असीम, अचिन्तय रूप, अतुल्य, अप्रतिम तू आप है।’